शिमला। विशेषर नेगी ।
हिमाचल प्रदेश में सरकारी प्रयासों के बावजूद गऊओ को लावारिस छोड़े की प्रवृति में कमी नही आ रही है। पशु प्रेमी इसका एक प्रमुख कारण पशु नाकारा होते ही घरों से निकाल कर लावारिस सड़को पर छोड़ना मानते है। हालांकि कई संगठन पशु क्रूरता निवारण बारे समय समय पर मुद्दा उठाते आए है। लेकिन पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 व 2018, पंचायती राज अधिनियम 1994 के 11 क को जमीनी स्तर पर ईमानदारी से नही उतारा जाना इस का प्रमुख कारण माना जा रहा है। पशु प्रेमियों के अनुसार पंचायती राज एवं पशुपालन विभाग की आपसी समाजस्य की कमी भी पशु लावारिस छोड़ने वालों के हौसलों को बुलंद कर रहा हैं । यह दीगर है कि लावारिस छोड़े गए पशुओं की संख्या को देखते हुए हिमाचल सरकार ने गौ सेवा आयोग का गठन कर गौ अभ्यारण एवं गौशालाओं की स्थापना की है। इन पशुओं के चारे की व्यवस्था बारे बाकायदा मंदिरों की आमदनी का कुछ हिस्सा एवं शराब पर सेस लगाकर आर्थिक संसाधन जुटाया जा रहा है। लोगो का कहना है कि जब तक पंचायती राज अधिनियम 1994 के 11 क को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जाता तब तक इस समस्या का समाधान संभव नहीं। हिमाचल प्रदेश पंचायती राज अधिनियम 1994 की धारा (11-क) के मुताबिक प्रत्येक परिवार के मुखिया को समय-समय पर अपने पशुओं की सही संख्या संबंधित ग्राम पंचायत प्रधान अथवा पंचायत सचिव को देना अनिवार्य है। पंचायत कार्यालय में बाकायदा इसका रिकॉर्ड तैयार करने का भी प्रावधान है । ताकि जरूरत पड़ने पर इस रिकॉर्ड से आवारा पशुओं के मालिक की पहचान को सुनिश्चित किया जा सके। पंचायत के सहयोग एवं तालमेल से पशुपालन विभाग द्वारा प्रत्येक पशु को पहचान चिन्ह यानी टैग लगाने की बात भी कही गई है। पंचायती राज अधिनियम 1994 की धारा 11 क की उपधारा 5 व 6 में पहचान होने पर पशुओं को आवारा फेंकने वाले मालिकों को जुर्माना लगाने का भी प्रावधान है। अब सवाल उठता है कि उक्त रिकॉर्ड प्रदेश की हर पंचायत में नियमित रूप से तैयार क्यों नही किया जाता है ।
आरटीआई मामलों के वकील अनिल सरस्वती का कहना है कि उक्त कानून से जुड़े कुछ बुनियादी मुद्दों को लेकर उन्होंने विभाग से सूचना के अधिकार के तहत जानकारियां मांग रखी हैं । गर्मी सर्दी में भूख प्यास से तिल- तिल मरते पशुओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। पशुओं की सड़को पर संख्या लगातार बढ़ने के कारण वाहन दुर्घटनाओं का ग्राफ बड़ा है। उन्होंने कहा वाहनों के रात के समय पशुओं से टकराने के समाचार भी आए दिन मिल रहे हैं। उन का कहना है पंचायती राज विभाग द्वारा पशुपालकों को उक्त कानूनी प्रावधानों की जानकारी के लिए जागरूकता अभियान चलाने चाहिए। सरस्वती ने बताया प्रदेश में करीबन अट्ठारह वर्षों से उक्त कानून की मौजूदगी के बावजूद गऊओ को लावारिस छोड़ने की प्रवृत्ति कम होने की बजाए बढ़ती जा रही है। विभिन्न कल्याणकारी गतिविधियों से जुड़े प्रदेश स्तरीय संगठन के प्रधान शेर सिंह नेगी का कहना है
पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 अथवा 2018 का उद्देश्य पशुओं के उत्पीड़न की प्रवृत्ति को रोकना है। इस ऐक्ट में अगर कोई पशु मालिक अपने पालतू जानवर को आवारा छोड़ देता है, या उसका इलाज नहीं कराता, भूखा-प्यासा रखता है तब वो व्यक्ति पशु क्रूरता का अपराधी होगा। वैसे तो ऐसी स्थिति को देखते हुए वर्ष 1962 में इस अधिनियम की धारा 4 के तहत भारतीय पशु कल्याण बोर्ड की भी स्थापना की गई थी। लेकिन जमीनी स्तर पर कोई प्रयास हिमाचल में नहीं हुए।
उधर पशुपालन विभाग के निदेशक राघव शर्मा ने बताया उक्त कानून को प्रभावी तौर से लागू करना पंचायतों की बाध्यता है। पंचायतों को इसे अमलीजामा पहनाना होगा। विभाग इस बारे समय समय पर निर्देश भी जारी करता है।